في قلبي أنت يا الله.. داخل تجاويف ضلوعي.. وتلافيف لحمي.. لا ينال منك شيء.. لا يصل إليك شيء.. ولا يغيّرك شيء.. تختلف الدنيا من حولي.. تتهاوى.. تحترق أو تنهار.. لا يهمّ..
ففي نهاية المطاف.. سأغلق نفسي على نفسي وأعود إليك.. لتسمعني وتحتويني.. حيثما كنت دائما.. هناك.. في قلبي..
ففي نهاية المطاف.. سأغلق نفسي على نفسي وأعود إليك.. لتسمعني وتحتويني.. حيثما كنت دائما.. هناك.. في قلبي..